BA Semester-5 Paper-2 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति

१. आधारोऽधिकरण।

कर्तृकर्मद्वारा तन्निष्ठक्रियाया आधारः कारकमष्किरणसंज्ञः स्याक।

अथवा
आधरोऽधिकरणम् इति सूत्रस्य सोदाहरण व्याख्याम् कुरु।
अथवा
अधिकरण संज्ञा को समझाइए।

अर्थ- कर्त्ता और कर्म में रहने वाली क्रिया का कर्ता और कर्म के द्वारा जो आधार होता है, उसकी अधिकरण संज्ञा होती है। आशय यह है कि किसी भी क्रिया का सीधे आधार नहीं होता। क्रिया कर्त्ता और कर्म में होती है अतएव कर्त्ता अथवा कर्म के आधार को अधिकरण कारक कहते हैं।

उदाहरण - कटे आस्ते (चटाई पर बैठता है) में 'आस्ते' क्रिया के आश्रय देवदत्त आदि कर्ता का आधार कट (चटाई) है अतः उसकी प्रकृत सूत्र से अधिकरण संज्ञा हो गई। अधिकरण संज्ञा होने से 'सप्तम्यधिकरणे च' सूत्र से सप्तमी विभक्ति हो गई है। इसी प्रकार 'स्थाल्यां पचति' (पतीली में पकाता है) में 'पचति' क्रिया के आश्रय तण्डुल कर्म की धारण क्रिया का आधार स्थली है अतः उसकी भी अधिकरण संज्ञा हुई।

२. सप्तचम्यधिकरणे च।

अधिकरणे सप्तमी स्यात्। चकाराद् दूरान्तिकार्येभ्यः। औपश्लेषिको वैषयिकोऽभिव्याप- कश्चेत्वाधारस्त्रिधा। कटे आस्ते। स्थाल्यां पचति मोक्षे इच्छास्ति। सर्वास्मिन्नात्यास्ति। वनस्य दूर अन्तिके वा। 'दूरान्तिकार्थेभ्यः' इति विभतित्रयेण सह चतस्रोऽत्र विभतयः परिताः।।

अथवा
स्थाल्यां पतति सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि कीजिए।

अर्थ - अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होती है। सूत्रस्थ - चकार (च) के कारण दूरवाची तथा समीपवाची शब्दों में भी सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - कहे आस्ते (चटाई पर बैठता है) में कट की आधारोऽधिकरणम् सूत्र से अधिकरण संज्ञा है अतः प्रकृत सूत्र से उसमें सप्तमी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार 'स्थाल्यांपचति' (पतीली में पकाता है) मोक्षे इच्छा अस्ति (मोक्ष के विषय में इच्छा है), सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति (सभी में आत्मा है) इन सब उदाहरणों में 'स्थाली' मोक्ष सर्व आदि की अधिकरण संज्ञा है अतः प्रकृत सूत्र से उन सब में सप्तमी विभक्ति हुई है। वनस्य दूरे अन्तिके वा (व से दूर और समीप) में 'दूर' तथा 'अन्तिक' शब्दों में भी प्रकृत सूत्र से सप्तमी विभक्ति होती है।

३. क्तस्येन्विषस्य कर्मण्युपसंख्यानम् (वार्तिक)

अधीती व्याकरणे। अधीतमनेनेति विग्रहे 'इष्टादिभ्यश्च' इति कर्तरीनिः।

अर्थ - क्तप्रत्ययान्त शब्द से जहाँ इन् प्रत्यय होता है वहाँ कर्म कारक में सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - अधीती व्याकरणे (जिसने व्याकरण का अध्ययन किया है)- यहाँ अधि उपसर्ग पूर्वक इ धातु से क्त प्रत्यय लगकर अधीती शब्द निष्पन्न हुआ। इस प्रकार अधीत शब्द क्त प्रत्ययान्त इक् विषयक है। अतः अधीती के कर्म 'व्याकरण' में प्रकृत वार्तिक से सप्तमी विभक्ति हुई।

४. साध्व साधु प्रयोगे च (वार्तिक)।

साधुः कृष्णो मातरि। असाधुर्माकुले।

अर्थ - साधु और असाधु शब्द के प्रयोग में भी सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - साधु कृष्णो मातरि (कृष्ण अपनी माता से हितकारी हैं) - यहाँ 'साधु' शब्द प्रयोग
के कारण 'मातरि' में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है।

५. निमित्तात्कर्मयोगे (वा०)

निमित्तमिह फलम्। योगः संयोगसमवायात्मकः।
चर्मणि द्वीपिनं हन्ति दन्तयोहिन्ति कुञ्जरम्।
केशेषु चमरीं हन्ति सीम्नि पुष्फलको हतः।।

हेतु तृतीया अत्र प्राप्ता। सीमा अण्डकोशः। पुष्कलको गन्धमृगः। योगविशेषे किम्? वेतनेन धान्यं लुनाति।

अर्थ - निमित्तवाची शब्दों से सप्तमी विभक्ति होती है, यदि वह निमित्त (फल) कर्म से युक्त हो। वार्तिकम में प्रयुक्त 'निमित्त' शब्द का अर्थ है 'फल'। 'योग' का अर्थ है - संयोग तथा समवाय सम्बन्ध' इस प्रकार वार्तिक का अर्थ हुआ जिस निमित्त (फल की प्राप्ति) के लिए कोई क्रिया की जाती है, उस निमित्त का यदि क्रिया के कर्म के साथ योग (संयोग - समवाय) हो तो निमित्त में सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - चर्मणि द्वीपिनं हन्ति (वह चर्म के लिए गैड़े को मारता है) यहाँ चर्म की प्राप्ति के लिए हनन क्रिया हो रही है अतः हनन क्रिया का निमित्त अथवा फल है चर्म तथा कर्म है 'द्वीपी' फलभूत चर्म का द्वीपी के साथ योग (सम्बन्ध) भी है अतः निमित्त 'चर्मन्' में प्रकृत वार्तिक से सप्तमी विभक्ति हुई।

दन्तयो: हन्ति कुञ्जरम् (वह दाँतों के लिए हाथी को मारता है) यह हनन क्रिया का फल है 'दन्त' तथा कर्म है 'कुञ्जर' फलभूत 'दन्त' तथा कर्मभूत 'कुञ्जर' में सम्बन्ध भी है अतः 'दन्त' में प्रकृत वार्तिक से सप्तमी विभक्ति हुई। इसी प्रकार केशेषु चमरीं हन्ति (केशों के लिए चमरी मृग को मारता है) तथां सीम्नि पुष्कलको हतः (अण्डकोश के लिए कस्तूरी मृग मारा गया) में केश तथा सीमन् में सप्तमी विभक्ति हुई है।

६. यस्य च भावेन भावलक्षणम्।

यस्य क्रियया क्रियान्तरं लक्ष्यते, ततः सप्तमी स्यात्। गोषु दुह्यमानासु गतः।

अर्थ - जिसकी क्रिया से कोई दूसरी क्रिया लक्षित होती है, उस क्रियावान् में सप्तमी विभक्ति होती है। तात्पर्य यह है कि जहाँ एक क्रिया के घटित होने पर ही दूसरी क्रिया हो वहाँ पहली क्रिया के आश्रयवाचक शब्द में सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - गोषु दुह्यमानासु गतः (वह गायों को दुहे जाते समय गया) यहाँ गाय में रहने वाली दोहन रूप क्रिया से किसी व्यक्ति की गमन क्रिया लक्षित की जा रही है अतः प्रकृत सूत्र से लक्षण 'गोषु दुह्यमानासु' में सप्तमी विभक्ति हुई।

७. अर्हाणां कर्तृत्वेऽनर्हाणामकर्तृत्वे तद्वैपरीत्ये च (वार्तिक)।

सत्सु तरत्सु असन्त आसते। असत्सु तिष्ठत्सु सन्तस्तरन्ति। सत्सु तिष्ठत्सु असस्तस्तरन्ति। असत्सु तरत्सु सन्तस्तिष्ठन्ति।

अर्थ - योग कारकों के कर्तृत्व (जहाँ योग्य कारक अपने कृत्य को ठीक-ठीक प्राप्त हों। अयोग्य कारकों के अकर्तृत्व (जहाँ अयोग्य कारक अपनी अयोग्यता को ठीक-ठीक प्राप्त हो) तथा इसके विपरीत अर्थात् योग्य कारकों के अकर्तृत्व (अच्छों को बुरों की योग्यता) और अयोग्य कारकों के कर्तृत्व (बुरों को अच्छी की योग्यता) में योग्य व अयोग्य वाची शब्दों में सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - सत्सु तरत्सु असन्त आसते (सज्जनों के तरते हुए असज्जन बैठे रहते हैं) - यहाँ तरने की क्रिया में सत् (सज्जन) योग्य है अतः प्रकृत वार्तिक है 'सत्सु तरत्सु' में सप्तमी विभक्ति हुई है।

- असत्सु तिष्ठस्सु सन्तस्तरन्ति (असज्जनों के बैठे रहते सज्जन तर जाते हैं) - यहाँ अयोग्य कारक 'असज्जन' अयोग्यता बैठे रहना को प्राप्त होते हैं अतः प्रकृत वार्तिक से उसमें सप्तमी विभक्ति हुई।

- सत्सु तिष्ठत्सु असन्तस्तरन्ति (सज्जनों के रहते हुए असज्जन तर जाते हैं) - यहाँ योग्य कारक 'सज्जन' अपनी विपरीत स्थिति 'अयोग्यता' 'बैठे रहना' को प्राप्त होते हैं। अतः प्रकृत वार्तिक से उसमें सप्तमी विभक्ति हुई।

८. षष्ठी चानादरे।

अनादराधिक्ये भावलक्षणे षष्ठीसप्तम्यौ स्तः। रुदति रुदतो वा प्राव्राजीत्। रुदन्तं पुत्रादिकमानहृत्य संन्यस्तवानित्यर्थः।

अर्थ - जहाँ एक की क्रिया से दूसरे की क्रिया लक्षित हो और अनादर अर्थ गम्यमान हो वहाँ जिसका अनादर किया जाता है उसमें षष्ठी या सप्तमी विक्ति होती है।

उदाहरण - रुदति रुदतो वा प्राव्राजीत (रोते हुए पुत्रादि को छोड़कर परिव्राजक अर्थात् संन्यासी बन गया) - यहाँ पुत्रादि के रोने की क्रिया से संन्यासी की गमन क्रिया लक्षित हो रही है तथा रोते हुए पुत्रादि का बिना परवाह किये चले जाने के कारण अनादर भी प्रकट हो रहा है अतः प्रकृत सूत्र से 'रुदति' में सप्तमी तथा 'रुदतः' में षष्ठी विभक्ति हुई।

९. स्वामीश्वराधिपतिदापादसाक्षिप्रतिभूप्रभूतैश्च।

एतैः सप्तमिर्योगे षष्ठी सप्तम्यौ सतः। षष्ठ्य मेव प्राप्तायां पाक्षिकसप्तभ्यर्थं वचनम्। गवां गोषु गोषु वा स्वामी। गवां गोषु वा प्रसूतः। गा एवानुभवितुं जात इत्यर्थः।

अर्थ - स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दापाद, साक्षी, प्रतिभू तथा प्रसूत इन सात शब्दों के योग में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है। यहाँ 'षष्ठी शेषे' सूत्र से केवल षष्ठी विभक्ति ही प्राप्त थी प्रकृत सूत्र से विकल्प से सप्तमी विभक्ति का विधान किया गया है)।

१०. आयुक्तकुशलाभ्यां चासेवायाम्।

आभ्यां योगे षष्ठीसप्तम्यौ स्तस्तात्यर्येऽर्थे। आयुक्तौ व्यापारितः। आयुक्तः कुशलो वा हरिपूजने हरिपूजनस्य वा। आसेवायाम् किम्? आयुक्तो गौ, शकटे। ईषद्युक्तः इत्यर्थः।

अर्थ - आसेवा (तत्परता) गम्यमान होने पर आयुक्त और कुशल शब्दों के योग में षष्ठी सप्तमी विभक्ति होती है। आयुक्त शब्द का अर्थ है व्यापारित अर्थात् व्यापार- मुक्त।

उदाहरण - आयुक्त कुशलो वा हरिपूजने हरिपूजनस्य वा (हरि को पूजन में तत्पर) यहाँ आयुक्त और कुशल शब्दों का अर्थ आसेवा अर्थात् तत्परता है अतः प्रकृत सूत्र से इनके योग में 'हरिपूजन' में षष्ठी तथा सप्तमी विभक्ति हुई।

सूत्र में 'आसेवाचाम्' क्यों कहा? आयुक्त और कुशल का असेवा से भिन्न अर्थ होने पर केवल सप्तमी विभक्ति ही होती है। यथा - आयुक्तो गौ: शकटे (गाड़ी में बैल थोड़ा ही जुता है)। यहाँ 'आ' का अर्थ 'ईषत् ' होने के कारण आसेवा का अर्थ तत्परता नहीं है। अतः अधिकरण कारक 'शकटे' में सप्तमी विभक्ति हुई।

११. यतश्चनिर्धारणम्।

जातिगुणक्रियासंज्ञगिः समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणं यस्ततः षष्ठीसप्तम्यौ स्तः। नृणां नृषु वा द्विजः श्रेष्ठः। गवां गोषु वा कृष्ण बहुक्षीरा। गच्छतां गच्छत्सु वा धावञ्छीघ्रः। छात्राणां छात्रेषु वा मैत्रः पटुः।

अर्थ - जाति, गुण, क्रिया और संज्ञा (नाम) के द्वारा किसी समुदाय से एक देश को पृथक् करना निर्धारण कहलाता है। जिससे निर्धारण होता है उसमें षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - ‘नृणां नृषु वा द्विजः श्रेष्ठः (मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है) - यहाँ मनुष्य समुदाय से जाति के आधार पर द्विज को श्रेष्ठ बताकर पृथक् किया गया है। अतः प्रकृत सूत्र से समुदाय वाचक नृ में षष्ठी तथा सप्तमी विभक्ति हुई है।

- गवां गोषु वा कृष्णा बहुक्षीरा (गायों में काली गाय बहुत दूध देने वाली है) यहाँ गो समुदाय से उसके एक देश भूत काली गाय को गुण के आधार पर पृथक् किया गया है। अतः प्रकृत सूत्र से 'गो' में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति हुई।

- गच्छतां गच्छत्सु वा धावन् शीघ्रः (चलने वालों मे दौड़ने वाला शीघ्र होता है) - यहाँ चलने वाले को समुदाय से उसके एक देश भूत दौड़ने वालों की क्रिया के आधार पर पृथक् किया गया है अतः प्रकृत सूत्र से 'गच्छत्' में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति हुई है।

१२. पञ्चमी विभक्ते।

विभागो विभक्तम्। निर्धार्यमाणस्य यत्र भेद एवं तत्र पञ्चमी स्वात्। मत्थुराः पाटलिपुत्रकेभ्यः आढ्यतराः।

अर्थ - जिस निर्धारणाश्रय में विभाग किया जाय उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। अर्थात् जहाँ निर्धारणाश्रय (निर्धारण की अवधि) से निर्धार्यमाण का सर्वथा भेद हो वहाँ निर्धारणाश्रय में पञ्चमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - मथुराः पाटलिपुत्रेकभ्यः आढ्यतरा (मथुरा निवासी पाटलिपुत्र- निवासियों से अधिक धनवान् हैं) यहाँ पाटलिपुत्र के निवासियों से मथुरा के निवासियों का निर्धारण हुआ है और निर्धारणाश्रय (पाटलिपुत्र- निवासी) तथा निर्धार्यमाण (मथुरा निवासी) दोनों भिन्न पदार्थ हैं अर्थात् दोनों में विभाग अथवा भेद है अतः प्रकृत सूत्र को निर्धारणाशय 'पाटलिपुत्र' से पञ्चमी विभक्ति हुई है।

१३. साधुनिपुणाभ्यामर्चायां सप्तम्येप्रतेः।

आभ्यां योगे सप्तमी स्यादर्चायाम् न तु प्रतेः प्रयोगे। भातरि साधुनिर्गुणो वा। अर्चापाम् किम्? निपुणो राज्ञो भृत्यः। इह तत्वकथने तात्पर्यम्।

अर्थ - अर्चा (प्रशंसा, सत्कार) अर्थ में वर्तमान साधु और निपुण शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है, परन्तु प्रति के योग में इस अर्थ में भी नहीं।

उदाहरण - मातरि साधुर्निपुणो वा (माता के प्रति साधु अर्थात् हितकारी अथवा कुशल है) यहाँ पर माता के प्रति सत्कार गम्यमान होने के कारण साधु और निपुण शब्दों के योग मे 'मातृ' में सप्तमी विभक्ति प्रयोग हुआ है।

१४. अप्रत्यादिभिरिति वक्तव्यम् (वार्तिक)।

साधुर्निपुणो वा मातरं प्रति परि अनु वा।

अर्थ - यहाँ प्रत्यादि से 'लक्षणोरथम्भूताख्यानभागवीप्सासु प्रतिपर्यनवः' सूत्र में उल्लिखित प्रति, परि तथा अनु का ग्रहण होता है। इस प्रकार सत्कार गम्यमान होने पर साधु और निपुण शब्दों के योग प्रति, परि और अनु का प्रयोग न हो तो, सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - साधुर्निपुणो वा आतरं प्रति परि अनु वा (माता के प्रति हितकारी अथवा कुशल)- यहाँ प्रति पति अनु का योग होने के कारण साधु और निपुण का योग होने पर भी 'मातृ ' में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग नहीं हुआ।

१५. प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च।

आभ्यां योगे तृतीया स्यात् चात्सप्तमी प्रसित उत्सुको वा हरिणा हरौ वा।

अर्थ - प्रसित और उत्सुक शब्दों के योग में तृतीया और चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण - प्रसित उत्सकों वा हरिणा हरौ वा (हरि में तत्पर अथवा उत्सुक) - यहाँ 'प्रसित: और 'उत्सुक' के योग में 'हरि' में तृतीया तथा सप्तमी विभक्ति हुई।

१६. नक्षत्रे च लुपि।

नक्षत्रे प्रकृत्यर्थे यो लुप्संज्ञया लुप्यमानस्य प्रत्ययस्यार्थस्तत्र वर्तमानातृतीयासप्तम्यो स्तोऽधिकरणे। 'मूलेनावाहयेद्देवीं श्रवणेन विसर्जयेत् मूले श्रवणे इति वा। लुपि किम्? पुष्ये शनिः।

अर्थ - लुबन्त नक्षत्रवाची शब्द से भी अधिकरण अर्थ में तृतीया और सप्तमी विभक्ति होती है। यहाँ उस नक्षत्रवाची शब्द का ग्रहण है जहाँ काल अर्थ में प्रत्यय आकर लुप् हो जाता है। इस प्रकार यदि प्रकृति का अर्थ नक्षत्रवाची हो और उससे जो प्रत्यय लगा हो उसका लुप् संज्ञा के द्वारा लोप हो गया हो तब ऐसे प्रत्यार्थयुक्त प्रकृतिभूत शब्द से अभिकरण कारक अर्थ में तृतीया और सप्तमी विभक्ति होती है।

उदाहरण - मूलेनावाहयेद् देवीं श्रवणेन विसर्जयेत् (मूल नक्षत्र से युक्त काल में देवी का आह्वान करना चाहिये और श्रवण नक्षत्र से युक्त काल में विसर्जन करना चाहिए) - यहाँ नक्षत्रवाची मूल और श्रवणशब्द से 'नक्षत्रेण युक्त काल:' से काल अर्थ में अण् प्रत्यय होकर 'लुबविशेषे' से अन् प्रत्यय का लुप् हो गया। तदनन्तर अण् प्रत्ययार्थ से युक्तप्रकृति भूत नक्षत्रवाची 'मूल' और श्रवण शब्द से प्रकृत सूत्र से तृतीया विभक्ति हुई।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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